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लेखनी प्रतियोगिता -17-Jul-2023 कलाकार



                  शीर्षक :- कलाकार-


                        रविवार का दिन था। विवेक के आफिस की छुट्टी धी।  वह  अखबार पढ़ते हुए बरामदे में बैठे  मोबाइल पर गानें सुन रहा था| एकाएक उनके कानों में इकतारे की धुन के साथ साथ लोक संगीत के बोल घुल गये|। 
                जब बाहर आकर  उन्होने आवाज की दिशा में देखा| दरवाजे पर खड़ा एक बूढ़ा याचक कुछ गाते हुए इकतारा बजा रहा था| वह दरवाजे तक गये और उसे वहीं बाहर बने चबूतरे पर बैठने के लिए कहा|।

  "काका आप बहुत अच्छा गाते हो| कहाँ से आए हो?" उसके बैठते ही उसने उन बूढ़े  काका से पहला सवाल किया|

           "बहुत दूर से  आया हूँ बाबूजी| हमारे पुरखे अपने जमाने के बहुत बड़े लोक कलाकार थे| बस उनसे ही  हमने भी थोड़ा बहुत सीख लिया वही हम भी गुनगुना लेते हैं।|" बूढ़े ने इज्जत मिलते ही अपना परिचय दिया|

             "तो यहाँ शहर में कैसे..? यहाँ कोई रिश्तेदार रहता है क्या?"  विवेक  ने अगला प्रश्न किया|

               " नहीं बाबूजी यहाँ हमारा कोई  रिश्तेदार  महीं रहता है। आजक।।आप जानते होअब इस कला की कहाँ कोई कद्र है ? गाँव  के लोग भी टी बी व मोबाइल  को ही देखते रहते हैं। गाँव में पेट भरना मुश्किल हो गया था।  और हमें  कोई दूसरा काम  आता ही नही है  इसलिए यहाँ शहर में इसके सहारे माँगकर गुजारा कर लेते हैं|" बूढ़े ने माथे का पसीना पौछते हुए  कहा।
       
         "तो  आज हमें भी कुछ सुना दो । हम आपकी आवाज सुनना चाहते हैं।" कहते हुए विवेक  भी वहीं चबूतरे पर बैठ गया 

        बूढ़े काका को पहले   तो  बहुत हैरानी हुई  और विवेक की  तरफ  देखा  । उसकी तरफ देखकर  आश्वस्त होने पर संगीत शुरू किया| उसे गाते देख उसके आसपास और लोग भी जुड़ने लगे| अपनी आँखें मूंदकर वह लगभग आधे घंटे तक अपने इकतारे के साथ लोक धुनें बिखेरता रहा| समाप्ति पर आँखे खोली तो आसपास तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी| ।

         विवेक ने  ने जेब से निकालकर उसे पचास का नोट देना चाहा|
बूढ़े काका ने हाथ जोड़कर मना करते हुए कहा 'बाबूजी, आया तो पैसों की आस में ही था मगर अब पैसे नही लूँगा|'

          "अररे ऐसा क्यौ बोल रहे हो। ? जब तुम पैसों के लिए ही तो यह बजाते हो| फिर मना किस लिए  कर रहे हो? यह तो आपका हक है। विवेक बोला।

         बूढ़े  काका की  आखों में आँसू आ गये| इकतारे को माथे से लगाते हुए वह रूँधे गले से इतना ही कह पाया " बाबूजी ज्यादा नही तो कम..पैसे तो रोज मिल ही जाते हैं| मगर आज एक कलाकार को उसका सम्मान मिला है  आज इसका मोल नहीं लगाऊँगा.।"

            विवेक  ने नोट उसके कुर्ते की जेब में रखते हुए कहा "रख लो काम आयेगें. और हाँ, अगले रविवार को भी जरूर आना.।"

             बूढ़े की आँखे बता रही थी कि सम्मान  मिलते ही उसकी मरती हुई कला उसमें दोबारा जीवित हो रही थी| ऐसा महसूस होरहा था कि जैसे एक दम तोड़ते कलाकार   को  आक्सीजन  मिल गई  हो।

आज की दैनिक प्रतियोगिता हेतु रचना।
नरेश शर्मा "पचौरी"

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8 Comments

madhura

16-Aug-2023 09:18 PM

Nice

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hema mohril

16-Aug-2023 05:06 PM

Good

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Babita patel

16-Aug-2023 04:42 PM

Nice

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